पता नहीं वो कौन थे कम से कम मेरे पिता नहीं थे ना ही मेने उनके साथ सालो बिताए की उन्हे पिता के रूप में देखो|
पर किसी से जुड़ने के लिए हज़ारो सालो का रिश्ता होना ज़रूरी है क्या ?
ज़रूरी है क्या की हम उन्हे खून के रिश्ते से ही जाने या फिर कोई नाम देकर ?
हम किसी के साथ जुड़ने से पहेले रिश्ते का नाम ढूंढते है, बुरी आदत है
पर ये उतनी ही सच की हम रिश्तो को नाम दिए बिना आगे नहीं बड़ पाते और उतना ही सच है ये भी की कुछ रिश्तो के नाम कभी नहीं होते ,शायद होना ज़रूरी भी नहीं|
उन दिनो जब मैं नौकरी के लिए अपने माँ-पिता से दूर रहती थी तभी मेरा फ्रॅक्चर हो गया था
तभी कुछ वक़्त पहेले ही में एक बुजुर्ग कपल से मिली थी बातों बातों में पता चला मेरा शहर आंटी के शहर का पड़ोसी है ,पड़ोसी एक दूसरे से दूर दराज़ शहर में बिछड़े पुराने दोस्तो के जैसे मिलते है और बाद में पता चला की वो घूम फिर के रिश्तेदारी में भी है कितनी छोटी है ये दुनियाँ ..है ना
खैर ,उनका प्यार मेरे लिए था और फिर तो धीरे धीरे बडने लगा और उन्होने खुद को मेरा गार्डियन बना लिया |
रिश्ते खूबसूरत होते है पर तब तक ही जब तक बिना माँग के रिश्ते जी रहे है प्यार और प्यार के बदले प्यार इतना ही हो तो शायद थोड़ी आसान हो जाती है ज़िंदगी, पर ऐसा हो जैसा हमने सोचा तो फिर क्या ...
हां ,तो मेरा फ्रॅक्चर हो गया और जैसे अंकल जी को पता चला वो मुझे लेने आ गये | आहा ! कितना बड़ा दिल होगा उनका , मैं आज भी सोचती हूँ मुझसे मेरी पूरी जानकारी की बिना अपने घर बेड रेस्ट के लिए गये | क्या आसान है किसी को बिना जाने इतना प्यार करना ?
वो मेरे साथ पूरे वक़्त बने रहे ,मेरे डॉक्टर से लेकर दवाईयाँ सबका ही ध्यान रखते थे ,यहाँ तक की खाना, आंटी के ना होंने पर बनाकर खिलाना जैसा काम भी किया करते थे
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कभी कभी तो ये आलम होता की में उनके साथ किचन में खड़े होकर खाना बनाती ,बावजूद इसके की मेरे पैर का प्लास्टर मुझे इस बात की पर्मिशन नहीं देता था तब वो मेरे लिए एक कुर्सी का इंतज़ाम करते और हम दोनो पता नहीं क्या दुनियाँ भर की बातें कर वक़्त का खर्चा करते थे
कब वक़्त बीत गया पूरा महीना ख़त्म ,पता ही नहीं चला कभी|
वहाँ से मेरे जाने का वक़्त आने लगा ,मुझे अपना काम भी वापस शुरू करना था जो महीने भर से छुट्टी पर था मुझे वहाँ से जाने की तैयारी शुरू करनी पड़ी | वो उदास थे उन दिनो ,बातें कम कर दी थी देखकर बस चले जाते | क्या कहती मैं उनसे ,की मैं आती रहूंगी या ये की अब पता नहीं मैं कब फ़ुर्सत निकालोंगी उनसे इतनी लंबी बातें करने के लिए | कुछ नहीं था कहने को ,बस मैने भी उन्हे देखा और सिर्फ़ देखकर
छोड़ देती थी
वहाँ से जाने के बाद फोन पर बात करती थी पर शायद तब भी उदासी ठहरी ही रहती | मैं उनके लिए बदले में कुछ नहीं कर पाई ,कुछ भी नहीं|
वो मेरे पिता नहीं थे पर उनकी आँखों को बेटी की तलाश हमेशा से थी ऐसे बेटी जिसके साथ वो उसकी आँखों से दुनिया को बड़ा होता या बदलता देखना चाहते थे हर बाप की तरह वो अपनी बेटी का एक सुरक्षा कवच बनकर घूमना चाहते थे
खाविशे रंगो के बिना होती है पर पूरी होनी पर हरा रंग भरती है मन में और बिखरने पर उदासी का ...नहीं पता वो रंग क्या होता है पर उम्मीदे कभी पूरी होती है क्या ??
वो कुछ महीनो का रिश्ता था पर गहरा था ना तमाम उमर गुज़ार सके साथ में , ना ज़्यादा बातें की पोटलिया खुली ,वक़्त अपनी चाल से बदलता रहा और हमे अलग करता गया | रेशा रेशा उधड़ा ,परत दर परत वक़्त की निकलती गयी | फिर हुआ वो,जैसे कहते है ना हर एक चीज़ खुद के साथ गिनकर साँसे लाती है और साँसे ख़तम होने पर कितने भी ऑक्सिजन टेंक् लगाए जाए वो साँस वापस नहीं आती |
वो अपने हालत से मजबूर हो गये हर बार चाहकर भी मुझसे मिलना, नहीं मिल पाए ,सब राज़ को बेपर्दा नहीं किया जा सकता तो वो राज़ भी पर्दे में रहा की उन्होने मुझसे मिलना क्यो छोड़ दिया |
साल के कुछ महीने जो खूबसूरत कहा जाता , ये चन्द महीने उन में से थे .............
वो मेरे पिता नहीं पर फिर भी मैं उन्हे फादर्स दे पर याद करती रही ,उनकी चमकदार आँखें और बड़ी बड़ी मूँछे मुझे बहुत याद आई
आप मेरे दिल में हमेशा रहेंगे