Monday, August 31, 2015

प्रेम

जब मुट्ठी भर साँसे और कुछ टूटते लम्हो की
जिंदगी बची थी जिस्म अपने छिलके उतार
रहा था वो ज़मीन जिस पर लिपटकर सोता
था उस से प्रेम माँग रहा था
तुम मुझसे उस जगह मिलना ,जहाँ वो नदी
का पार है वहाँ मुझे पेड़ की तरह गाड़ दिया
जाएगा , और तुम मुझसे प्रेम लेकर जाना
और बाँट देना उन सब मे. जो प्रेम में
डूब कर मर गए थे कहना ,मैं प्रेम
वृक्ष हूँ
जब प्रेम की हुई कई क्रांतियाँ ख़त्म हो
जाएगी और तुम्हारी उंगली के बीच
बची जगह पर प्रेम उगने लगेगा
तब तुम, प्रेम की नई क्रांति करोगे
और बर्फ पर जाने वाले लोगो को
वो लकड़ी दोगे जो उन्हे उस मिट्टी के पहाड़ पर
चढने में मदद करेगी, और उनके
जगह जगह पर पड़े बूट के निशान में
प्रेम उगने लगेगा ,बर्फ पर पुहँचने
से पहले ,

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